वायु सेना के लिए रफ़ाल विमान ख़रीद के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार साफ़ तौर पर फँसती नज़र आ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने फ़ैसले में साफ़ कर दिया है कि सरकार को राहत नहीं दी जा सकती है।
आडवाणीजी आज ब्लॉग लिख कर बीजेपी और मोदी जनता पार्टी का फर्क बता रहे हैं। लेकिन ‘भावनाओं के सवाल’ को बवाल बनाने की कोशिश तो आडवाणीजी की पीढ़ी ने ही शुरू की थी।
कुछ दिन तक पहले तक जिस भारतीय मीडिया की तारीफ़ उसकी निडरता और निष्पक्षता के लिए होती थी, वह यकायक प्रधानमंत्री के सामने दीन-हीन क्यों है? क्यों उसने घुटने टेक दिए हैं?
2019 के चुनाव में अपने अनुयायियों के साथ वोट माँगनेवाले सभी नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि हमें विरासत में मिली बहुमूल्य उपलब्धियों को सहेजना और अगली पीढ़ी को सौंपना आज के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी है।
प्रियंका गाँधी अपनी ओर ध्यान खींचने में सफल रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी पहली यात्रा के समय भी, अहमदाबाद के अधिवेशन में भी, दलित नेता चन्द्रशेखर से मिलने के समय भी और प्रयाग से वाराणसी की गंगा यात्रा में भी।
आडवाणी को एक ऐसे शख़्स के तौर पर याद किया जाएगा जिसने आरएसएस की विचारधारा हिन्दुत्व को भारत की राजनीति में न केवल स्वीकार्य बनाया, बल्कि उसे मजबूती के साथ स्थापित भी किया।
अयोध्य विवाद के निपटारे के लिए बनी मध्यस्थता समिति के सामने दोनों पक्ष समझौते के लिए कितना झुकेंगे यह कहना मुश्किल है, क्योंकि आज भी वे अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए हैं।
कौन से स्वार्थ उठ खडे होते हैं कि लोग ख़ून ख़राबे पर उतर आते हैं ? क्या वे ही ये लोग हैं जो आज के दिन ढफ ढोल बजाकर फागें गा रहे थे, क्या वे ही लोग जो हर एक दरबाजे पर जाकर फगुआ ले रहे थे?
किसी भी शताब्दी के शायर हों सभी शायरों ने अवाम को सबसे ऊपर रखा और लोक संस्कृति को बनाए, बचाए रखने की जमकर पैरोकारी भी की। ख़ुद भी रंगे और जमाने को भी रंग दिया।
स्त्रियों की दुनिया में धार्मिक भ्रम जाल हैं। शताब्दियों से उन्हें भरमा कर रखा गया है और हम हैं कि जाले साफ़ ही नहीं करते और न उन भ्रम जालों से जवाब माँगते हैं।
मनोहर पर्रीकर संघ के थे, लेकिन उनमें वह कट्टरता नहीं दिखती थी, जो कई अन्य में दिखाई देती है। एक मायने में वह वाजपेयी और मोदी का मिश्रण थे। वाजपेयी जैसा सबको साथ लेकर चलने का हुनर और मोदी जैसी राजनीतिक चतुराई।
अन्ना आये, अनशन आया, 2014 में नयी सरकार आयी लेकिन लोकपाल नहीं आया। पाँच साल तक ठाट से चौकीदारी चलाने के बाद अचानक मोदीजी ने इस सबसे सम्मानजनक पद को `सहकारिता आंदोलन’ में क्यों बदल दिया?
मोदी को चुनौती देने वाली विपक्षी पार्टियाँ उन मुद्दों को उठाना भूल गई हैं जिन पर लोकसभा का चुनाव होना चाहिए था और उनके भाषणों पर प्रतिक्रिया देने की ड्यूटी निभा रही हैं।
सवाल यह है कि क्या भारतीय विमानों ने पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करने में कामयाबी पाई है। हम यही जानना चाहते हैं ताकि हम अपना मुँह मीठा कर सकें।